Friday, November 22, 2019

मोदी सरकार सरकारी कंपनियां क्यों बेच रही है?

भारत का राजकोषीय घाटा 6.45 लाख करोड़ रुपए का है. इसका मतलब ख़र्चा बहुत ज़्यादा और कमाई कम. ख़र्च और कमाई में 6.45 लाख करोड़ का अंतर.
तो इससे निपटने के लिए सरकार अपनी
मोदी सरकार की कैबिनेट ने 5 कंपनियों के विनिवेश को मंज़ूरी दे दी है. इससे पहले नीति आयोग के उपाध्यक्ष राजीव कुमार ने अगस्त में बीबीसी को बताया था कि विनिवेश या बिक्री के लिए केंद्र सरकार को 46 कंपनियों की एक लिस्ट दी गई है और कैबिनेट ने इनमें 24 के विनिवेश को मंज़ूरी दे दी है.
सरकार का टारगेट है कि इस साल वो ऐसा करके 1.05 लाख करोड़ रुपए कमाएगी.
कंपनियों का निजीकरण और विनिवेश करके पैसे जुटाती है.
निजीकरण और विनिवेश को अक्सर एक साथ इस्तेमाल किया जाता है लेकिन निजीकरण इससे अलग है. इसमें सरकार अपनी कंपनी में 51 फीसदी या उससे ज़्यादा हिस्सा किसी कंपनी को बेचती है जिसके कारण कंपनी का मैनेजमेंट सरकार से हटकर ख़रीदार के पास चला जाता है.
विनिवेश में सरकार अपनी कंपनियों के कुछ हिस्से को निजी क्षेत्र या किसी और सरकारी कंपनी को बेचती है.
सरकार तीन तरह से पैसा जुटाने की कोशिश कर रही है - विनिवेश, निजीकरण और सरकारी संपत्तियों की बिक्री.
निजीकरण और विनिवेश एक ऐसे माहौल में हो रहा है जब देश में बेरोज़गारी एक बड़े संकट के रूप में मौजूद है. देश में पूँजी की सख़्त कमी है. घरेलू कंपनियों के पास पूँजी नहीं है. इनमें से अधिकतर क़र्ज़दार भी हैं. बैंकों की हालत भी ढीली है.
विनिवेश के पक्ष में तर्क ये है कि सरकारी कंपनियों में कामकाज का तरीक़ा प्रोफेशनल नहीं रह गया है और उस वजह से बहुत सारी सरकारी कंपनियां घाटे में चल रही हैं.
इसलिए उनका निजीकरण किया जाना चाहिए जिससे काम-काज के तरीक़े में बदलाव होगा और कंपनी को प्राइवेट हाथों में बेचने से जो पैसा आएगा उसे जनता के लिए बेहतर सेवाएं मुहैया करवाने में लगाया जा सकेगा.
5 जुलाई को बजट पेश करते हुए वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने पब्लिक सेक्टर अंडरटेकिंग (PSU) में अपना निवेश 51 फ़ीसदी से कम करने की घोषणा की थी.
इसका आसान शब्दों में मतलब ये हुआ कि अगर 51 फीसदी से कम शेयरहोल्डिंग होगी तो सरकार की मिल्कियत ख़त्म.
लेकिन उसी घोषणा में ये बात भी थी कि सरकार सिर्फ़ मौजूदा नीति बदलना चाहती है जो फ़िलहाल सरकार की 51% डारेक्ट होल्डिंग की है. इसे बदलकर डारेक्ट या इनडारेक्ट सरकारी होल्डिंग करना चाहते हैं.
एक उदाहरण इंडियन ऑयल कॉरपोरेशन लिमिटेड (IOCL) का लेते हैं. इसमें सरकार की 51.5% डारेक्ट होल्डिंग है. इसके अलावा लाइफ़ इंश्योरेंस कॉरपोरेशन (LIC) के 6.5% शेयर भी उसमें हैं जो पूरी तरह सरकारी कंपनी है. इसका मतलब IOCL में सरकार की इनडारेक्ट होल्डिंग भी है.
तो अगर सरकार IOCL से अपनी डारेक्ट सरकारी होल्डिंग कम करती है तो इनडारेक्ट सरकारी होल्डिंग की वजह से फ़ैसले लेने की ताकत सरकार के हाथ में होगी. लेकिन फिर इसका उद्देश्य क्या है? उद्देश्य तो ये था कि कोई नया निवेशक आए और इन संस्थानों को बदल कर विकास की राह पर लाए. लेकिन कहीं ना कहीं सरकारी हस्तक्षेप की आशंका रहती है.
आर्थिक और व्यवसाय जगत के एक बड़े वर्ग का मानना है कि पिछले तीसेक सालों में जिस तरह से सरकारी कंपनियों को बेचा गया है वो विनिवेश था ही नहीं, बल्कि एक सरकारी कंपनी के शेयर्स दूसरी सरकारी कंपनी ने ख़रीदे हैं.
इससे सरकार का बजट घाटा तो कम हो जाता है लेकिन न तो इससे कंपनी के शेयर होल्डिंग में बहुत फ़र्क़ पड़ता है, न ही कंपनी के काम-काज के तरीक़े बदलकर बेहतर होते हैं.