लिंडसे हिल्सम
अपनी किताब में लिखती हैं, 'मिस्र के पत्रकार मोहम्मद हाइकाल ने लिखा था कि सऊदी अरब के शाह फ़ैसल और मिस्र के राष्ट्रपति नासेर
उस स
मय अवाक रह गए जब ग़द्दाफ़ी ने सुझाव दिया कि जार्डन के शाह
हुसैन को मार दिया जाए, क्योंकि उन्होंने अपने यहाँ से फलस्तीनी लड़ाकों को निकाल
दिया था. ग़द्दाफ़ी कभी भी किसी अरब राष्ट्राध्य
क्ष को नहीं मरवा पाए, लेकिन ऐसा नहीं था कि कभी उन्होंने इसके लिए कोशिश न की हो.
यासेर
अराफ़ात के लिए उनके मन में कोई ख़ास इज़्ज़त नहीं थी. ग़द्दाफ़ी अराफ़ात
से इसलिए नाराज़ रहते थे,
क्योंकि उन्होंने विदेश में रह रहे उनके विरोधियों को मरवाने के लिए उन्हें अपने लोग मुहैया नहीं करवाए थे.
1982
में जब अराफ़ात और उनके अल-
फ़तह के साथी बैरूत में घिर गए थे तो
ग़द्दाफ़ी ने उन्हें खुला टेलिग्राम भेज कर कहा था, 'आपके लिए सबसे अच्छा
विकल्प ये है कि आप आत्महत्या कर लें.' तब अराफ़ात ने उन्हीं की भाषा में
उसका जवा
ब देते हुए लिखा था, 'मैं इसके लिए तैयार हूँ, बशर्ते आप भी मेरे इस क़दम में मेरा साथ दें.' '
बहुत कम लोगों को पता है कि ग़द्दाफ़ी दुनिया की शक्ति शाली महिलाओं के
बहुत मुरीद थे. लिंडसी हिल्सन अपनी किताब
में लिखती हैं, ' एक बार उन्होंने एक इंटरव्यू के अंत में एक महिला पत्रकार से कहा था, 'क्या आप अमरीकी
विदेश मंत्री मेडलीन अलब्राइट तक मेरा एक संदेश पहुंचा सकती हैं?'
संदेश में लिखा था, 'मैं आपसे प्यार करता हूँ. अगर आपकी भी मेरे प्रति यही
भावनाएं हों तो तो अगली बार जब आप टेलिविजन पर आएं, तो
हरे रंग की पोशाक पहनें. राष्ट्पति बुश के ज़माने में विदेश मंत्री रहीं कोंडेलीसा राइस से
भी वो उतने ही
प्रभावित थे और उनके पीठ पीछे उन्हें 'माई अफ़रीकन प्रिंसेज़' कहा करते थे.
राइस अपनी आत्मकथा 'नो हायर ऑनर' में
लिखती हैं, ' 2008 में जब मैंने उनसे उनके तंबू में मिलने से इंकार कर दि
या, तब वो मुझे अपने घर ले गए. वहाँ उन्होंने दुनिया के चोटी के नेताओं के साथ
मेरी तस्वीरों का अपना संग्रह मुझे दिखाया. जब मैं ये देख रही
थी तो उन्होंने अपने म्यूज़िक सिस्टम पर एक अंग्रेज़ी गाना चला दिया, 'ब्लैक
फ़्लावर इन द वाइट हाउज़.''
भारत के साथ कर्नल ग़द्दाफ़ी के रिश्ते क
भी बहुत अच्छे होते थे तो कभी बहुत बुरे. ग़द्दाफ़ी कभी भारत नहीं आए.
यहाँ तक कि 1983 में दिल्ली में हुए गुटनिरपेक्ष सम्मेलन में भाग लेने के लिए उन्होंने अपने नंबर 2 जालौद
को दिल्ली भेजा.
वो यहाँ आकर एक विवाद
में फंस गए. मशहूर पत्रकार केपी नायर ने 'टेलिग्राफ़' अख़बार में लिखा, 'सम्मेलन में
भाग लेने के बाद अहदेल सलाम जालौद हैदराबाद गए, जहाँ उन्होंने न सिर्फ़ 'प्रोटोकॉल' तोड़ा,
बल्कि अपनी सुरक्षा भी ख़तरे में डाल ली.
जब उनकी कार का काफिला चार मीनार के सामने पहुंचा, तो वो कार से उतर कर उसकी छत पर नाचने लगे.
''उनकी
ये तस्वीर भारती
य अख़बारों में भी छपी. इंदिरा गांधी ने इसको लीबिया की
भारतीय मुसलमानों से सीधा संवाद बैठाने की कोशिश के रूप में लिया. भारत और
लीबिया के संबंध ख़राब होना शुरू हो गए. लेकिन ग़द्
दाफ़ी को पता था कि इंदिरा गाँधी को कैसे मनाया जा सकता है ? उन्होंने अपनी दूसरी पत्नी सफ़िया
फ़रकाश अल ब्रज़ाई को इंदिरा को मनाने दिल्ली भेजा.''
जब ग़द्दाफ़ी की पत्नी दिल्ली
आईं, उस समय लीबिया में अर्जुन असरानी भारत के राजदूत थे.
अर्जुन
असरानी याद करते हैं, 'मेरी पत्नी श्रीमती ग़द्दाफ़ी को छोड़ने त्रिपोली
हवाई अड्डे गईं. उस समय उन्होंने कहा था कि जब मैं
वापस लौटूंगी तो आपसे मिलूँगी. जब ग़द्दाफ़ी की पत्नी दिल्ली पहुंची तो उन्हें राष्ट्पति भवन में
ठहराया गया. इंदिरा गांधी से जब वो मिलने गईं, तो उन्होंने कहा कि मेरे
पति ने मुझसे कहा है कि मैं तब तक लीबिया वापस न लौ
टूँ, जब तक इंदिरा गाँधी लीबिया आने का वादा न कर दें. बहुत इसरार करने पर इंदिरा
गांधी ने लीबिया जाने का निमंत्रण स्वीकार कर लिया.
''जब विदेश मंत्रालय के
अधिकारियों ने
मुझसे पूछा कि इसके बदले में क्या हम लीबिया से कुछ माँग सकते हैं ?
मैने कहा 'दो भारतीय श्रमिक पाँच मिलीग्राम अफ़ीम रखने के आरोप
में उम्र कैंद की सज़ा काट रहे हैं, क्योंकि वहाँ के कानून बहुत
कठोर थे. अगर श्रीमती ग़द्दाफ़ी चाहें तो उन्हें दया के आधार पर छोड़ा जा सकता है.
जैसे ही सफ़िया ग़द्दाफ़ी ने लीबिया की धरती
पर क़दम रखा, उन दो भारतीय मज़दूरों को छोड़ दिया गया.''
अर्जुन
असरानी आगे बताते हैं, 'उन्होंने मेरी पत्नी को कॉफ़ी पीने के
लिए बुलाया. उन्होंने उनसे पूछा कि आपका लीबिया प्रवास कैसा
रहा. मेरी पत्नी ने जवाब दिया, बाकी सब तो बहुत अच्छा था, लेकिन मुझे एक ही अफ़सोस
रहा कि मैं आपके 'हैंडसम' पति से नहीं मिल पाई. उस समय तो ग़द्दाफ़ी की
पत्नी कुछ नहीं बोलीं. अगले दिन मेरे पास ग़द्दाफ़ी के
दफ़्तर से फोन आया कि आज का आपका क्या कार्यक्रम है ?
मैंने बता
दिया कि शाम को मैं फ़्रेंच राजदूत के यहाँ भोज पर जा रहा हूँ. जब हम लोग भोजन कर रहे थे तभी
फ़्रेंच दूतावास में कर्नल ग़द्दाफ़ी के यहाँ से फ़ोन आया. मुझसे पूछा गया
कि श्रीमती असरानी क्या अभी कर्नल ग़द्दाफ़ी से मिलने आ सकती हैं ? मैंने
पूछा
सिर्फ़ श्रीमती असरानी ? उधर से जवाब आया 'सिर्फ़ मिसेज़ असरानी. आप
चाहें तो एक दुभाषिया भेज सकते हैं.' ख़ैर मेरी पत्नी वहाँ गईं. ग़द्दाफ़ी
बहुत गर्मजोशी से उनसे मिले. उन्होंने उन्हें एक का
लीन और गोल्ड-प्लेटेड घड़ी दी जिसके डायल पर ग़द्दाफ़ी की तस्वीर थी.
लेकिन एक अजीब सी
बात उन्होंने कही, ''मैंने सुना है कि आप कल लीबिया छोड़ कर दूसरे देश
तबादले पर जा रहे हैं. लेकिन आपके पति
बग़ैर मेरी अनुमति के लीबिया कैसे छोड़ सकते हैं ? मेरी पत्नी ने कहा कि ये बात तो आप
मेरे पति से ही पूछ सकते हैं. जैसे ही मेरी पत्नी गाड़ी में बैठने लगीं, उन्हें बताया गया कि
अपने पति से कह दीजिएगा कि कल सुबह उन्हें यहाँ बुलाया जाएगा.''
दूसरे दिन ग़द्दाफ़ी ने अर्जुन असरानी
को बुलाने के लिए अपनी कार भेजी. ग़द्दाफ़ी ने उनके ज़रिए भारत से परमाणु तक
नीक लेने की फ़रमाइश की जिसे भारत ने स्वीकार नहीं किया.
असरानी बताते हैं, 'ग़द्दाफ़ी ने मुझसे
कहा कि मोरारजी भाई ने हमसे वादा किया था कि वो हमें परमाणु तकनीक देंगे.
लेकिन वो अभी तक नहीं हो पाया है. मैंने कहा, मुझे इस बारे में कोई जानकारी
नहीं है. लेकिन मैं दिल्ली जा रहा हूँ तो आपकी इस बात का ज़िक्र ज़
रूर करूँगा. ग़द्दाफ़ी ने मुझसे पूछा कि अब आपका तबादला किस देश में हुआ
है ? जब मैंने कहा थाईलैंड तो ग़द्दाफ़ी ने कहा, थाईलैंड में हमारा कोई दूतावास
नहीं हैं. आप वहाँ हमारे राजदूत की तरह भी काम करिएगा. मैं उनसे क्या कहता ?
मैंने कहा ज़रूर, ज़रूर. '